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उ॒र्वी पृ॒थ्वी ब॑हु॒ले दू॒रेअ॑न्ते॒ उप॑ ब्रुवे॒ नम॑सा य॒ज्ञे अ॒स्मिन्। द॒धाते॒ ये सु॒भगे॑ सु॒प्रतू॑र्ती॒ द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

urvī pṛthvī bahule dūreante upa bruve namasā yajñe asmin | dadhāte ye subhage supratūrtī dyāvā rakṣatam pṛthivī no abhvāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒र्वी इति॑। पृ॒थ्वी इति॑। ब॒हु॒ले इति॑। दू॒रेअ॑न्ते॒ इति॑ दू॒रेऽअ॑न्ते। उप॑। ब्रु॒वे॒। नम॑सा। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन्। द॒धाते॒ इति॑। ये इति॑। सु॒भगे॒ इति॑ सु॒ऽभगे॑। सु॒प्रतू॑र्ती॒ इति॑ सु॒ऽप्रतू॑र्ती। द्यावा॑। रक्ष॑तम्। पृ॒थि॒वी॒ इति॑। नः॒। अभ्वा॑त् ॥ १.१८५.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:185» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (दूरेअन्ते) दूर में और समीप में (बहुले) बहुत वस्तुओं को ग्रहण करनेवाली (उर्वी) बहुत पदार्थयुक्त (पृथ्वी) बड़ी आकाश और पृथिवी का (अस्मिन्) इस संसार के व्यवहार (यज्ञे) जो कि सङ्ग करने योग्य उसमें (नमसा) अन्न के साथ मैं (उप, ब्रुवे) उपदेश करता हूँ और (ये) जो (सुभगे) सुन्दर ऐश्वर्य की प्राप्ति करनेवाली (सुप्रतूर्त्ती) अतिशीघ्र गतियुक्त आकाश और पृथिवी (दधाते) समस्त पदार्थों को धारण करते हैं उन (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान वर्त्तमान माता-पिताओ ! (नः) हमको (अभ्वात्) अपराध से (रक्षतम्) बचाओ ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे पृथिवी के समीप में चन्द्रलोक की भूमि है वैसे सूर्य लोकस्थ भूमि दूर में है, ऐसे सब जगह प्रकाश और अन्धकाररूप लोकद्वय वर्त्तमान है, उन लोकों से जैसे उन्नति हो वैसा यत्न सबको करना चाहिये ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

दूरेअन्ते बहुले उर्वी पृथ्वी सुभगे सुप्रतूर्त्ती द्यावापृथिवी अस्मिन् यज्ञे नमसाऽहमुपब्रुवे ये च सुभगे सुप्रतूर्त्ती द्यावापृथिवी दधाते ते द्यावापृथिवीव वर्त्तमानौ हे मातापितरौ नोऽस्मानभ्वाद्रक्षतम् ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उर्वी) बहुपदार्थयुक्ते (पृथ्वी) विस्तीर्णे (बहुले) ये बहूनि वस्तूनि लाती गृह्णातीः (दूरेअन्ते) (उप) (ब्रुवे) उपदिशेयम् (नमसा) अन्नेन (यज्ञे) सङ्गन्तव्ये (अस्मिन्) संसारव्यवहारे (दधाते) (ये) (सुभगे) सुष्ठ्वैश्वर्य्यप्रापिके (सुप्रतूर्त्ती) अतितूर्णगती (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) (नः) (अभ्वात्) ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - यथा पृथिव्याः समीपे चन्द्रलोकभूमिस्तथा सूर्यलोकभूमिर्दूरे। एवं सर्वत्रैव प्रकाशाऽन्धकाररूपं लोकद्वन्द्वं वर्त्तते ताभ्यां यथोन्नतिः स्यात् तथा सर्वैः प्रयतितव्यम् ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा चंद्रलोक पृथ्वीजवळ आहे तसा सूर्यलोक दूर आहे. सर्व स्थानी (गोलांमध्ये) प्रकाश व अंधकाररूपी गोल द्वय वर्तमान असतात. त्या गोलामुळे जशी उन्नती होईल तसा प्रयत्न सर्वांनी करावा. ॥ ७ ॥